आज सुबह कुछ यूँ हुज़ूर हुए,
कुछ सवालो के हम रूबरू हुए,
बचाने को अपनी आबरू,
जवाबो में हम मगरूर हुए |
कुछ टुकड़े दरफतों में मिले,
लिखे थे उनमे कुछ शिकवे गीले,
इस मोड पर आ कर एहसास हुआ,
जितने थे पास उतने ही दूर हुए |
रिस्तो में अब वो बात कहा,
वादे बाते भरोसा कसमे,
वो थे बस दिखावे के रस्मे,
लफ्जो की भला थी बिसात ही क्या,
हम तो एहसासों से मजबूर हुए |
आँखों की नींद कम हो चली अब,
यादो की टीस नम हो चली अब,
कुछ ख्वाब अधूरे ही रह गए,
कुछ वक़्त के थपेड़ो में बह गए,
मंज़िले तो फिर भी पा ले हम शायद
हमसफ़र होने की आरज़ू अधूरे ही रह गए |
EA00002